श्री हरविंद्र सिंह 

Arsh Engineering


कोर ड्राई प्रेस को Quality और Reliability में  Arsh Engineering का नाम पूरे उत्तर भारत में जाना पहचाना है। अभी हाल ही में इन्होंने 50 डेलाइट की कोर ड्राई प्रेस बनाने में सफलता हासिल की है।


 

बाजार की आर्थिक मंदी के बारे में आपके क्या विचार है

पिछले साल तक हम सुनते थे कि ब्रांड बनाना चाहिए, ब्रांड अगर बनेगा तो उसका बेनेफिट मिलेगा और आज हम ये देख रहे हैं कि प्लाईवुड में जो भी ब्रांड हैं, खासकर छोटे ब्रांड हैं उनको ये दिक्कत आ रही है कि वो अपने ब्रांड का प्रीमियम नहीं ले पा रहे। ये जरूर होता है कि उनका माल बिकता रहता है। डिमांड कम होने की वजह से की वजह से प्रीमियम नहीं ले पाते। अब जो छोटे मैन्यूफैक्चरर्स भी हैं, माल की क्वालिटी तो लगभग वही हैै, मशीने भी सबके पास वही हो गई हैं, लक्कड़ भी वही यूज कर रहे हैं। सब कुछ सेम है। सिस्टम जो चेंज हो रहा है, तो बड़े वाले जो लोग जिन्होंने अपने ब्रांड के प्रमोशन पर जो खर्चा किया और अपने ब्रांड की सुपीरीयरटी जो मानते हैं फिर उनको बाजार के जो नाॅन ब्रांड है उनके बराबर के रेट में उनको बेचना पड़ा तो कैसे वो एक्सेप्ट कर लेंगे।

अगर ब्रांड के नाम पर क्वालिटी मिले तो आदमी नहीं जाएगा सस्ते माल के चक्करों में। अगर वही माल सस्ते में मिल रहा है और वही माल ब्रांड में मिल रहा है तो उसके लिए लोग समझदार हो गए हैं। जो क्वालिटी बनाकर चल रहा है वो क्वालिटी वाला ब्रांड अब भी चल रहा है। जो छोटे ब्रांड हैं वो अगर क्वालिटी मेंन्टेन नहीं कर पा रहे, वो सेम क्वालिटी नही दे पा रहे हैं तो वहां दिक्कत आ रही है, या तो क्वालिटी बना कर रखें फिर तो एक टाइम आता है कि ब्रांड बिकेगा ही। हमने न कुछ क्वालिटी कम किया न हमने रेट कम किए। जिसने हमारी मशीन ली है दोबारा कल परसों सिलिगुडी तक से आकर मेरे पास से मशीन लेकर गये। उसने चार साल पहले मुझसे मशीन ली थी दोबारा से मेरे पास आया। अगर आप क्वालिटी बना कर रखते हैं तो आप मार नहीं खा सकते। अगर क्वालिटी में ब्वउचतवउपेम और रेट एडजस्ट कर लेता तो कौन लेगा हम से। दोबारा नहीं आएगा यहीं फर्क पड़ जाता। उतने समय तक वेट करना पड़ेगा। उतनी पूंजी भी चाहिए वेट करने लायक।

वो इसलिए भी हो रहा है क्योंकि चेंज बहुत जल्दी हो रहे हैं। सरकार स्टेप बहुत जल्दी-जल्दी ले रही है। इनको थोड़ा सलो चलना चाहिए। इनके पास तो तीन साल ही होते हैं। पांच साल में तीन साल ये काम करते हैं और दो साल पोलिटिक्स करते हैं। मोदी जी हमारे खुद बोलते हैं कि पहले साढ़े तीन साल काम करूुंगा और लास्ट के एक से डेढ़ साल पोलिटिक्स करूंगा। इन चीजों का इफैक्ट तो छोटी कंपनियों को ज्यादा पड़ रहा है उनकी भी मजबूरी हो जाती है जब माल स्टाक लग जाता है, माल बिकता नहीं है, जो सबर नहीं कर पाते तो उनको बेचना पड़ता है। जब बेचना पड़ता है तोे खर्चों की वजह से वो रेट में भी कोमपरोमाइज कर लेते हैं। जब रेट में कोमपरोमाइज करते हैं, तो लगता है कि महंगा माल लगा के कम रेट में बेचना है तो क्वालिटी में कोम्परोमाइज करना शुरू कर देते हैं। अब या तो दूसरा ब्रांड बनाकर उसमें सस्ता बेचो। कम से कम उस ब्रांड को मत छेड़ो। अपने अच्छे ब्रांड के राॅ मटीरियल को नहीं छेडना चाहिए। अगर आपका माल नहीं बिक रहा तो दूसरे ब्रांड पर जाए और उसको सस्ता करके बेचिए। कोई स्कीम लगाकर बेचिए कुछ मर्जी करके बेचिए। तो वो अच्छा डिसीजन हो सकता है। मगर उस सेम ब्रांड को सस्ता करके मत बेचो उसे छोड़ दे आप। ब्रांड धीरे चलाओ, न चलाओं, रोक लो पर उस ब्रांड को मत खराब करो। उसको बनाने में तो सदियां बित जाती हैं और खराब करने में तो टाइम नहीं लगता। इसको बना कर रखो। सस्ता माल बेचना है सस्ता बा्रंड बना लो या कोई दूसरा ब्रांड बना लो।

इसमें दुकानदार जो होता है उसका रोल हो जाता है कि वो किसी ब्रांडपर, उसमें ग्रीन लिखवा दिया, ब्लैक लिखवा दिया या रेड लिखना दिया तो उसमें दुकानदार तीन नं ग्रेड को एक नं माल में डाल देगा। इसमें या तो प्लेन दे या फिर बिल्कुल नया ब्रांड दे या फिर उसमें अपना नाम न जोड़ें। उसको छोड़ कर ही करना चाहिए। अगर मान लिजिए कि आपने कोई प्रोडक्ट बना के दिया और आपने यह कह दिया कि इसी फैक्टरी का है लेकिन मैं इसको सेकेंड क्वालिटी का दे रहा हूं। ये तो दुकानदार पर डिपेंड करता है कि वो आपके माल का क्या करता है। ये सेम फैक्ट्री का ही माल है अगर दुकानदार सामने वाले को बोलेगा तो वो ग्राहक उसी के विश्वास पर ही लेगा कि जिस फैक्ट्री का फर्स्ट ग्रेड इतना बढ़िया है तो अगर सेकेन्ड ग्रेड 2 रू सस्ता है तो इस माल में इतना ज्यादा कोई फर्क नहीं आएगा। अरडू का माल अगर किसी ने लगा दिया और चीज बना कर दे दिया 2 रू में कम और फैक्टरी वाला खुश हो जाए तो उसे खुश नहीं होना चाहिए। बिल्कुल नहीं होना चाहिए। मेरे एक मित्र हैं बनाते सस्ता माल हैं कहते हैं हम बहुत खुश हैं. हमनें फैक्टरी लगाई थी बढ़िया माल बनाने के लिए। हम 4 लाख की गाड़ी भेजते थे तो कट-कटाकर साढ़े तीन ही मिलता था। तो हम बढ़िया माल जैसे बेचते थे उसमें नखरे हो जाते थे। ये हो गया, वो हो गया, नखरे करके पैसे काटे जाते थे। अब हम बनाते हैं सस्ता माल, कह के देते हैं कि सस्ता है इसमें कोई सुनवाई नहीं, यहां आकर चैक कर लो, लोड़ करवा लो, ले जाओं। पैसे जितने बनेंगे उतने आने हैं। अच्छे माल बनाने वाले को दिक्कत आ रही हैं, सस्ते वाले को तो कोई दिक्कत नहीं वो जो मर्जी लगाएं। कह के देते हैं कि हमने कूड़ा बेचना है।

इस कम्पीटीसन में सर्वाइव कैसे किया जाए?

एक दुकानदार के पास में सभी कंपनी के मार्केटिंग एजेंट जाते हैं लेना उसी को है। हां, अलग बात है अपनी अपनी डिलिंग होती हैं अपना अपना काम करने का तरीका होता है। टर्म एंड कंडीशन होती हैं, हर बंदे की सेम नहीं हो सकती। हमारे पास में सब आते हैं पर सबके साथ तो मेरा काम नहीं होता। जिसके साथ मेरे रेट पटेंगे क्वालिटी पटेगी तब जाकर काम होगा। लोगों को जानकारियां बढ़ती जा रही हैं। ये फर्क तब नहीं पड़ेगा जब आपकी डिमांड ठीक हो जाएगी। फर्क तब पड़ता है जब डिमांड कम हो प्रोडक्सन ज्यादा हो। तो डीलर के इधर-उधर भागने के चासेंज बन जाते हैं। पर जब डिमांड भी है और मैन्युफैक्चरिंग भी इक्वल है तो वो बढ़िया से चलता है। अगर सबके रेट एक जैसे से हो तो नोरमली डीलर भी जो है इधर उधर झांकता नहीं। टेम्पोरेरी खराब हो सकता है। हमें भी फर्क पड़ा था जब कम्पीटीसन बढ़ गयी थी एक बार तो ऐसा हो गया था कि काम है ही नहीं। फिर दोबारा से शुरू हुआ और चल रहा है। लोगों ने चीज काॅपी कर ली। जो एक्चुअल शुरू करता है वो अपने प्रोडक्ट में सुधार करता रहता है। पर जो नकल मारने वाला होता है वो नकल ही मारता रहता है। जो मेहनत करके करता है उसे पता होता है हमने कहां कमियां की कहा सुधारी। जो आदमी शुरूआत में ये करता है और लगातार वो मेहनत करता रहे तो उसको दोनों तरफ देखना पड़ता है। सामने जो उसका परचेजर है उसके साथ भी थोड़ा बहुत कोम्परोमाइज करना पड़ता है या एडजस्ट करना पड़ता है और अपनी भी जो मैन्यूफैक्चिरिंग लाइन है उसको भी वो सुधरता चला जाता है। स्टेबल भी रखे और सुधार भी करें। जैसे हम अपनी बात करें। जैसे अगर आप कोई कंप्लेट करे तो हम सुधारते हैं। ये हमारी रिसपोंसिबिलिटी बनती है, हमारी जिम्मेदारी बनती है। जिसको जितना लंबा चलना है वो सुधारता है जिसको नहीं चलना वो उसी तरह से चलता जाता है। एक टाइम आता है कि जब सब कुछ खत्म होने वाला होता है। जैसे नोकिया की बात नोकिया इतने सालों तक टाॅप पर रहा और फिर अचानक बाजार से जीरो हो गया। तो कोई भी जो बड़े ब्रांड के कोई भी मैन्यूफैक्चरर्स है, वो इतने समय से टाॅप पर रहते हैं। उन्हें भी देखना पड़ेगा कि बाजार का सिस्टम बदल रहा है। जिन्होंने मार्केट के हिसाब से एंडरायड नहीं चलाया। एंडरायड में नहीं आया तो बंद करना पड़ गया। ज्यादातर अपने आप को नए सिस्टम में डाले, चेंज करें। एक बार बंद हो गये तो दोबारा एंट्री बहुत मुश्किल से होती है। आप रेगुलर चलते रहो, तो आप चलते रहोगे। अगर आप निकल गए और दोबारा से एंट्री करोगे, तो वो पहले से ज्यादा मुश्किल हो जाती है।

बाजार की मंदी का हमारे खर्चों पर क्या असर पड़ता है?

बाजार में मंदी तो कैसे ही नजर आ रही है। हम राशन लेनें जाते हैं वहां भी वैसी चहल-पहल नहीं है जो दो साल पहले थी। ये एक फैक्ट है, देख कर ही पता चल रहा है। सुपर माल से जो परचेज करते हैं वहां इतना रश होता था, बिलिंग के लिए लाइने लगी होती थी। अब जाते हैं अगर 10 काउंटर हैं तो 4 काउंटर पर बिलिंग होती हैं और 6 काउंटर बंद होते हैं। पहले था कि जेब में पैसे हैं आदमी एक आईटम लेने गया तो 10 आइटम उठा ले आता था। अब ये है कि 10 आइटम के लिए जाता है तो 2 आइटम ही लेकर आता है। पहले ये था कि अपनी जेब देखकर नहीं लाता था सामान देख कर ले आता था। अब जरूरतें भी कम कर रहे हैं लोग, करनी पड़ रही हैं। फायदा यह हो गया कि जो अनावश्यक खर्चे थे वो कम हो गए लेकिन हालात ऐसे हो गए हैं कि अनावश्यक खर्चे कम करके भी पूरे नहीं पड़ रहे हैं।

हर एक खर्चा जो होता है कहीं न कहीं उससे रिलेटिड आदमी भी इससे लिंक हो जाते हैं। पहले 1-2 महीने में 4 महीने में, चाहे कोई फर्क, नजर न आए लेकिन अगर ज्यादा देर तक काम सलो चलता है, साल डेढ़ साल लग जाता है तो सारे काम इफैक्ट कर जाते हैं। प्रोब्लम आ जाती है, अभी आई हुई है। अभी सरकार मान नहीं रही है। पर वो प्रोब्लम है। हर कोई कोस्ट कटिंग में लगे हुए हैं। रेस्टोरेंट में जो 4-5 ए.सी. लगे होते हैं कोशिश करते हैं कि सिटिंग उस हिसाब से लगाते हैं जहां पर ए.सी. चालू करता है। बाकि जगह टेबल ही सेट नहीं करते। वो टेबल ही तब सेट होते हैं जब लगता है कि नए कस्टमर आ रहे हैं। जो फालतू खर्चे कंट्रोल नहीं कर रहा वो लोस में जा रहा है। जो अभी भी लापरवाही से चल रहे हंै वो लोस में जा रहा है। हमारा काम छोटा है, पेमेंट के लिए किसी का फोन नहीं आता था, हम जरूर फोन करते थे लोगों को। पर हमारे पास किसी का पेमेंट के लिए फोन नहीं आया। अब फर्क पड़ा हुआ है। जवाब देना भी मुश्किल हो जाता है।

जो नई यूनिटें लगने वाली थी उन लोगों ने अपना काम पेंडिग कर रखा है या सलो कर रखा है तो बाजार में जितनी मशीनों के आॅर्डर लगे हुए होंगे वो उसी तरह से पेंडिंग चल रहे होंगे।

एक मशीन हमने सपेशल बनाई थी 50 परसेंट एडवांस भी लिया हुआ है। उसमें जो हम 108 बनाते हैं उससे 6 इंची लंबी बना कर दी थी। स्पेसल फाली आफ कट के लिए बनायी थी। आफ कट कोर में थोड़ा-थोड़ा गैप देना होता है। डेढ़ दो महीने हो गए वो ऐसे ही पड़ी हुई है। वो उठा नहीं रहे। नोरमल मशीन के हिसाब से हम बेच नहीं रहे। आज हमने बेच दी, कल वो कहे उठानी है तो फिर एकस्ट्रा खर्च लगेगा। वो दिक्कत अब सामने आ रही है। जिसका आर्डर है वो पूछता भी नहीं है कि आप तैयार कर रहे हो कि नहीं कर रहे हो।

जब हो जाएगी तो आप बता देंगे कि तैयार हो गई कि अब आप उठाओ। तैयार करके हमें लगता है कि अगर रखते रहेंगे तो हम भी क्या करेंगे उसका। जगह भी नहीं आगे काम करने के लिए। लेबर को तो काम देना ही पड़ता है। 12 घंटे काम करते हैं नोरमली। अगर ऐसा चलता रहा तो हमें भी टाइम कम करना पड़ जाएगा।

काम में पुंजी की लागत बढ़ने लगी है?

अब रियलटी सेक्टर में लोग बैंकों के चक्कर में फंस रहे हैं। पता नहीं लोग फंस रहे हैं या बैंक फंस रहे हैं। जो सैक्टर में काम करने वाले हैं जैसे डीएचएफएल , आम्रपाली। अभी कल की रिपोर्ट में था कि एक पिरामल सन्स है और एक आदित्य बिरला ग्रुप है। उन्होंने मार्केट से एफडी के हिसाब से जो लिया था उसका टाईम एक्सटैंड करवाया है। उनका कहना है कि करोड़ों रूपये के जो रियल्टी सेक्टर के प्रोजेक्ट है वो अनसोल्ड होने की वजह से फन्ड अटके पड़े हुए हैं। पब्लिक के पास ये बातें पहुंच ही नहीं रही। डायरेक्टली नहीं पहुंच रही। छोटे-मोटे या सोशल मीडिया से खबरे आ रही हैं। न्यूज में तो कुछ भी नहीं आ रहा है। इस तरह की बातें जो हाईलाइट करने वाली हैं बिल्कुल नहीं आ रही है। जो मीडिया का काम है वो उस तरीके से कर नहीं रहे। क्या कोई बंदिश्त है या जो भी है। एक बात यह भी हो सकती है कि हर कोई अपनी दाल-रोटी में इतना उलझा हुआ है कि इतनी दूर की बातें कि रिजर्व बैंक के गर्वनर क्यों इस्तीफा देकर जा रहे हैं, वो सोचने का टाईम ही नहीं है। इतनी दूर तक किसी का दिमाग ही नहीं चलता। बड़े-बड़े इंडस्ट्रीयलिस्ट भी इस चीज को हाइलाईट नहीं कर पा रहे। वो कर ही नहीं सकते। हर किसी को डरा कर रखा हुआ है, उलझे पड़े हुए हैं। महीना कब निकल जाता है पता ही नहीं चलता। अभी एक सीए से बात हुई वो बता रहा था कि बाजार की एनालाइसिस इतनी बुरी है कि मैनें उससे यह सवाल किया था कि अभी का जो पीरियड है उसमें दुखी सुखी होकर के, लोन लेकर के काम को साल दो साल तक चला लेना चाहिए। उसका सजेशन था कि आप जो भी इसमें लोन लेकर डालोगे अगर बाजार के हिसाब से जीरो हो जाएगा तो बहुत नुकसान हो जाएगा। वो लायबिलिटी आप की हो जाएगी और उसको यूज बाजार करेगा तो फसने वाला काम हो जाएगा। उससे बढ़िया ये है कि आप कम खा लो, खर्चे कम कर लो, बढ़ाओ मत। अगर 12 घंटे है तो 8 घंटे कर लो। प्रोडक्सन कम कर लो। वो बेहतर है बजाय इसके कि लोन लेकर काम बढ़ाने के। वैसे सबके अपने-अपने व्यूज हैं। अगर काम आता है तो काम करना चाहिए। अगर काम पहले ही स्लोह है आउटपूट है नहीं तो उसमें पैसा डालना तो कोई अकल की बात नहीं। इसी चीज की एनालाइसिस बहुत जरूरी हो गई है। आदमी का काम चलता रहता है तो बहुत सारे काम बिना सोचे समझे भी हो जाते है पर वो टाईम है नहीं अभी। अभी तो बहुत सोच-समझ कर करना है काम। आज लेते हैं तो कल देने भी हैं। ये बात जल्दी से हम लोगों को समझ में नहीं आती। तभी तो ये सोचते हैं कि तत्काल में जो काम अटका हुआ है उसी किसी भी तरह निकाल लो। अगर उसके रिटर्न है तो फिर कोई बात नहीं लेकिन अगर लगता है कि फसने ही हैं तो फिर तो बेवकूफी वाली बात है। वो रिटर्न का तो पता नहीं चलता किसी भी मैन्यूफैक्चरिंग प्लांट में खासकर प्लाईवुड़ में जिसमें की चार तरह की आईटम हैं। उसमें वास्तव में क्या प्लस-माइनस हो रहा पता नहीं चल पाता। जो भी घटना या बढ़ना है वो तो परचेज में हो जाना है माल तो बनता रहताा है। थोड़ा सा पानी ज्यादा आ गया माल का वजन बढ़ गया माल खुल गया। बी ग्रेड ज्यादा बन गया तो काम खराब हो गया। सटीक कैलकुलेशन तो है नहीं इस काम में। लोहे में तो ये है कि आज इतना तोल के आया इतना बना और इतना चला गया। उसमें थोड़ा हिसाब लग जाता है पर इसमें तो हिसाब ही नहीं है क्योंकि तोलने के बाद भी घट जाना है। कितना घटना है वो कोई हिसाब भी नहीं। अगर अच्छे मार्जिन में काम हो रहा है, फिर तो कोई बात नहीं। अगर आप बराबर की सोच कर चलोगे तो माइनस में ही जाओगे।